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इसकी तीन सुरतें है:
1. मरने वाला अगर वसीयत कर के मरा है कि उसके नाम की कुर्बानी की जाये, तो फिर एैसा करना चाहिए, इसमें उलमा में कोई इख्तलाफ नहीं है।
2. अगर ज़िन्दा आदमी अपने कुर्बानी में मुर्दों को शामिल करले तो इसमें भी कोई हर्ज की बात नहीं है।
3. एक अलग हिस्सा मुर्दे के लिए कुर्बानी किया जाए (मतलब एक पुरे बकरे की कुर्बानी किसी मुर्दे के लिये किया जाए)। इसमें हमारे उलमा में इख्तलाफ है।
हम यहां तीसरे नुक्ते पर बात करना चाहेंगे। इस नुक्ते पर उलमा की 2 राय है। चंद उलमा का कहना है कि मुर्दे की तरफ से अलग कुर्बानी करना जायज़ है।
उनकी दलील यह हैं,
अम्मी आयशा रज़िअल्लाहु तआला अन्हां बयान करती है कि नबी सल्लललाहु अलैही वसल्लम ने दो काले पाऊं, काली आँखों वाले मेंढें कुर्बानी करने का हुक्म दिया, और नबी सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने इन्हें फरमाया, “ऐ आयशा छुरी लाना (मुझे छुरी पकड़ाओं) तो मैंने इन्हें छुरी दी इन्होंने वह छुरी ली और मेंढ़ा पकड़ कर लेटाया फिर इसे ज़बह किया (ज़बह करने की तैयारी करने लगे) और फरमाया
‘بسم الله ، اللهم تقبل من محمد ، وآل محمد ، ومن أمة محمد ثم ضحى به’
हम यहां तीसरे नुक्ते पर बात करना चाहेंगे। इस नुक्ते पर उलमा की 2 राय है। चंद उलमा का कहना है कि मुर्दे की तरफ से अलग कुर्बानी करना जायज़ है।
उनकी दलील यह हैं,
अम्मी आयशा रज़िअल्लाहु तआला अन्हां बयान करती है कि नबी सल्लललाहु अलैही वसल्लम ने दो काले पाऊं, काली आँखों वाले मेंढें कुर्बानी करने का हुक्म दिया, और नबी सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने इन्हें फरमाया, “ऐ आयशा छुरी लाना (मुझे छुरी पकड़ाओं) तो मैंने इन्हें छुरी दी इन्होंने वह छुरी ली और मेंढ़ा पकड़ कर लेटाया फिर इसे ज़बह किया (ज़बह करने की तैयारी करने लगे) और फरमाया
‘بسم الله ، اللهم تقبل من محمد ، وآل محمد ، ومن أمة محمد ثم ضحى به’
बिस्मिल्लाही अल्लाहु अकबर, ऐ अल्लाह मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम और आले मुहम्मद और उम्मत-ए-मुहम्मद की जानिब से कुबूल फरमा ओर फिर इसे ज़बह कर दिया।”
(सहीह मुस्लिम: 1967)
लेकिन इस हदीस की तफसील हमें एक दुसरी हदीस से मिलती है।
जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़िअल्लाहु तआला अन्हं कहते है कि मैं ईद उल अज़हा में रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम के साथ ईदगाह में मौजूद था, जब आप सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम खुत्बा दे चुके तो मिम्बर से उतरे और आप के पास एक मेंढ़ा लाया गया । तो आप सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने:
“بِسْمِ اللَّهِ وَاللَّهُ أَكْبَرُ هَذَا عَنِّي وَعَمَّنْ لَمْ يُضَحِّ مِنْ أُمَّتِي ”
“अल्लाह के नाम से, अल्लाह सब से बड़ा है, यह मेरी तरफ से और मेरी उम्मत के हर उस शख्स की तरफ से है जिसने कुर्बानी नहीं की है” कह कर उसे अपने हाथ से ज़बह किया।
(सुनन अबु दाऊद, हदीस 2810)
तो इससे यह पता चला कि जिन लोगों ने कुर्बानी नहीं की, उनकी तरफ से रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने कुर्बानी की है।
एक दुसरी दलील भी है,
حَدَّثَنَا مُحَمَّدُ بْنُ عُبَيْدٍ الْمُحَارِبِيُّ الْكُوفِيُّ، حَدَّثَنَا شَرِيكٌ، عَنْ أَبِي الْحَسْنَاءِ، عَنِ الْحَكَمِ، عَنْ حَنَشٍ، عَنْ عَلِيٍّ، أَنَّهُ كَانَ يُضَحِّي بِكَبْشَيْنِ أَحَدُهُمَا عَنِ النَّبِيِّ صلى الله عليه وسلم وَالآخَرُ عَنْ نَفْسِهِ، فَقِيلَ لَهُ فَقَالَ أَمَرَنِي بِهِ يَعْنِي النَّبِيَّ صلى الله عليه وسلم – فَلاَ أَدَعُهُ أَبَدًا . قَالَ أَبُو عِيسَى هَذَا حَدِيثٌ غَرِيبٌ لاَ نَعْرِفُهُ إِلاَّ مِنْ حَدِيثِ شَرِيكٍ . وَقَدْ رَخَّصَ بَعْضُ أَهْلِ الْعِلْمِ أَنْ يُضَحَّى عَنِ الْمَيِّتِ وَلَمْ يَرَ بَعْضُهُمْ أَنْ يُضَحَّى عَنْهُ . وَقَالَ عَبْدُ اللَّهِ بْنُ الْمُبَارَكِ أَحَبُّ إِلَىَّ أَنْ يُتَصَدَّقَ عَنْهُ وَلاَ يُضَحَّى عَنْهُ وَإِنْ ضَحَّى فَلاَ يَأْكُلْ مِنْهَا شَيْئًا وَيَتَصَدَّقْ بِهَا كُلِّهَا . قَالَ مُحَمَّدٌ قَالَ عَلِيُّ بْنُ الْمَدِينِيِّ وَقَدْ رَوَاهُ غَيْرُ شَرِيكٍ . قُلْتُ لَهُ أَبُو الْحَسْنَاءِ مَا اسْمُهُ فَلَمْ يَعْرِفْهُ . قَالَ مُسْلِمٌ اسْمُهُ الْحَسَنُ
हनश रिवायत करते है कि अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हं हर साल 2 नर मेंढ़ें की कुर्बानी दिया करते थे, एक रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम के लिए और दुसरा खुदके लिए। जब (अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हं) से इस चिज़ का ज़िक्र किया गया, उन्होंने फरमाया उन्होंने (रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम) ने मुझे हुक्म दिया था। तो मैं इसे कभी नहीं छोड़ुंगा।
(जामिआ तिर्मिजी़, हदीस 1495)
लेकिन इस हदीस को खुद ईमाम तिर्मिज़ी ने “ग़रीब” करार दिया है, जो कि ज़ईफ हदीस की एक किस्म होती है। और साथ-साथ इस हदीस का हुक्म भी बयान कर दिया है। इस हदीस को अक्सर मुहद्दिसीन ने ज़ईफ करार दिया है। शैख ज़ुबैर अली ज़ई ने भी इस हदीस को ज़ईफ करार दिया है। उसकी वजह यह है कि:
इस हदीस की सनद में एक रावी, शरीक बिन अब्दुल्लाह अल-क़ाज़ी है। यह मुदल्लिस रावी है और उन से रिवायत कर रहे है। और मुहद्दिसीन का यह उसूल है कि मुदल्लिस की अन वाली रिवायत ज़ईफ होती जब तक समा की तशरी न हो। यही उसूल ईमाम मुस्लिम ने भी सहीह मुस्लिम के मुकद्दमे में बयान किया है।
दुसरी तरफ कुछ उलमा का कहना है कि मुर्दे के लिए खास कुर्बानी नहीं हो सकती बल्कि मुर्दे के लिए इसका सदक़ा हो सकता है:
ईमाम तिर्मिज़ी इस हदीस के तहत यह मसअला हल कर करते है। ईमाम तिर्मिज़ी फरमाते है,
وَقَدْ رَخَّصَ بَعْضُ أَهْلِ الْعِلْمِ أَنْ يُضَحَّى عَنِ الْمَيِّتِ وَلَمْ يَرَ بَعْضُهُمْ أَنْ يُضَحَّى عَنْهُ . وَقَالَ عَبْدُ اللَّهِ بْنُ الْمُبَارَكِ أَحَبُّ إِلَىَّ أَنْ يُتَصَدَّقَ عَنْهُ وَلاَ يُضَحَّى عَنْهُ وَإِنْ ضَحَّى فَلاَ يَأْكُلْ مِنْهَا شَيْئًا وَيَتَصَدَّقْ بِهَا كُلِّهَا
“बाज़ अहले इल्म ने मय्यत की तरफ से कुर्बानी की रूख्सत दी है और बाज़ लोग ने मय्यत की तरफ से कुर्बानी की रूख्सत नहीं समझी है। अब्दुल्लाह इब्ने मुबारक (ताबे-ताबई) कहते है, “मुझे यह ज़्यादा पसंद है कि मय्यत की तरफ से सदक़ा कर दिया जाए, कुर्बानी न की जाए, और अगर किसी ने इसकी तरफ से कुर्बानी कर दी तो उसमें से कुछ न खाये बल्कि तमाम को सदक़ा करदे।”
(जामिआ तिर्मिज़ी, हदीस 1495)
तो मेरे इल्म के मुताबिक अब्दुल्लाह बिन मुबारक की राय पर अमल करना बेहतर होगा। यह इसलिए भी क्योंकि मय्यत की तरफ से कुर्बानी करने की कोई खास दलील नहीं है और न ही रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम से साबित है कि उन्होंने अपने फौतशुदा बीवी खदिजा रज़िअल्लाहु तआला अन्हां या फौतशुदा बेटे या किसी और फौतशुदा शख्स के लिए खास यह अमल किया हो। अलबत्ता जो 2 सुरतें ऊपर बताई गई है वह जायज़ है लेकिन बहतर है कि इस तीसरे तरीके से बचा जाए।
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और अल्लाह सबसे बेहतर जानता है।
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