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क्या सारे नेक उस्ताद सलफ़ी होते है ?


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आइये यह सवाल खुद सलफ़ी आलीम शैख सालेह अल मुनज्जिद से पुछते है, 

۞ शैख सालेह अल मुनज्जिद सलफ़ का रास्ता समझाते हुए कहते है:

“... लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सारे नेक शैख (उस्ताद) सलफ़ी होते है या फिर सारे सलफ़ी नेक है और दुसरे लोग नेक नहीं है, नहीं! यह मुआमला नहीं है।

तक़वा का मतलब वह अमल करना जिसका अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने हुक्म दिया है और उस चिज़ से रूक जाना जिस चिज़ से अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम ने रोका है। हर शख्स जो अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैही वसल्लम की इताअत करता है और उनकी नाफरमानी से बचता है वह अल्लाह की रोशनी की पैरवी कर रहा है और वह मुत्तक़ी है। हर शख्स जो अल्लाह की नाफरमानी करता है उसकी परहेज़गारी में उतनी कमी है जितना वह नाफरमानी या गुनाह करता है।

अगर तक़वा यह से यही मुराद है तो वह इतनी आसानी से, खुद को सलफ़ी या कुछ और कहने से हासिल नहीं होगी, या किसी जमाअत में शामिल होने से। बल्कि एक शख्स जितना ज़्यादा तक़वा की वुजुहात को हासिल करता है - जैसे अल्लाह के बारे में (इल्म) सिखना और उसकी शरीअत के बारे में और उसपर अमल करना - उतना ज़्यादा उसको तक़वा का हिस्सा मिलेगा और इस्लाम में उतना ही ज्यादा उसका दर्जा बुलन्द होगा।

... जैसे कि इस्लाम और मुसलमान जो करता है इसमें फर्क करना ज़रूरी है, (इसी तरह) सलफ़ी मन्हज और सलफ़ीयों में फर्क करना ज़रूरी है।”

स्रोत: https://islamqa.info/en/20172

शैख की इस राय से खुलासा यही हुआ कि ज़रूरी नहीं कि आपके उस्ताद वही हो जो अपने आपको सलफ़ी कहते हो बल्कि अगर कोई अपने आपको सलफ़ी ना कहे तो वह भी नेक उस्ताद हो सकता है क्योंकि अमल ज़रूरी है नाम नहीं। अल्लाह के हुक्म पर अमल करना और उसकी नाफरमानीयों से बचना, इसके ज़रिए फैसला होगा क़यामत के दिन ना कि नामों से फैसले होने है क़यामत के दिन।

۞ एक दुसरे विद्वान और मुहद्दिस शैख ज़ुबैर अली ज़ई की भी कुछ ऐसी ही राय है, आइये देखते है:

शैख ज़ुबैर अली ज़ई एक हदीस को समझाते हुए कहते है:

“इस सिलसिले में डाॅक्टर फरहत हाशमी की तक़रीर “अर्र रिजालु कव्वामुना अलन निसाई” के मौज़ु पर बहुत मुफीद है जो कि केसेट की सुरत में मार्केट में दस्तयाब है।” 

स्रोत: माहनामा अल हदीस शैख ज़ुबैर अली ज़ई, जिल्द 50, पेज 13.

अब जैसे कि इल्म में होगा कि डाॅ. फरहत हाशमी अपने आपको सलफ़ी कहना पसन्द नहीं करती, वह अपने आपको सिर्फ मुस्लिम ही कहना पसन्द करती है फिर भी शैख ज़ुबैर अली ज़ई उनकी तारीफ करते है और उनसे दीन का इल्म लेने की सलाह देते है।

۞ एक और (सलफ़ी) आलीम है जिनका नाम शैख आसिम अल हकीम है। उनसे भी जब एक शख्स सवाल पुछता है कि क्या डाॅ. फरहत हाशमी से इल्म ले सकते है तो वह कहते है कि अगर उनकी तक़रीर में बड़ी गलतीयां नहीं पायी जाती है तो उनसे दीन का इल्म ले सकते है।

स्रोत: https://goo.gl/vfrTs2

ज़रा गौर करें कि शैख यह नहीं कहते है कि क्योंकि वह सलफ़ी नहीं है इसलिए उनसे दीन का इल्म हासिल ना किया जाए।

और यह तरीका शुरू से हमारे अहले इल्मों में रहा हैं। अबु बकर, उमर, उस्मान, अली, हसन अल-बसरी, अता इब्ने अबी रबाहा, ईमाम अबु हनीफा, ईमाम शाफई, ईमाम अहमद, ईमाम मालिक, ईमाम तबरी, ईमाम बुखारी, ईमाम मुस्लिम, ईमाम तिर्मिज़ी, ईमाम इब्ने हजर अस्कलानी, ईमाम नववी, ईमाम इब्ने कसीर, यह सब बड़े उस्तादों में है और इन लोगों ने खुद को कभी भी सलफ़ी नहीं कहा। और यह लोग हम सबके, यहां तक कि खुद सलफ़ी भाईयों के भी उस्ताद है और हम सब इनसे दीन सिखते है। जब इन लोगों से दीन सिखने में हमें यह नज़र नहीं आता कि यह सलफ़ी है या नहीं फिर आजके ज़माने में हम क्यों यह कहते है कि अगर कोई सलफ़ी नहीं तो उनसे दीन का इल्म नहीं ले सकते। कुछ लोगों को यह ग़लत-फहमी हो सकती है कि उस ज़माने में फिर्के नहीं थे। ऐसा नहीं है, फिर्के तो सहाबा के ज़माने से ही बनना शुरू हो गये थे और खवारिज उसकी एक मिसाल है जिसका ज़िक्र बुखारी और मुस्लिम में है।

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