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क्या नमाज़ की सिर्फ फ़र्ज़ रकात पढना काफ़ी है?


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अल्हम्दुलिल्लाह..

सबसे पहले ये बात वाज़ेह हो जाए कि फर्ज, सुन्नत और नवाफिल इबादत या नमाज़ किसे कहते हैं और इसमें क्या फर्क है क्योंकि हमारे मुआशरे में इनकी अलग-अलग तशरी पाई जाती है।

फ़र्ज़ इबादत: यानि ज़रूरी इबादत। इसको अल्लाह ने हर शक्स के ऊपर लाज़िम किया है। इसे करने से अजर है और इसे छोड़ने पर गुनाह है। इस्मे उम्मत में कोई इख्तिलाफ़ नहीं है।

सुन्नत और नवाफिल इबादत: क्या इबादत में हमारी उम्मत में इख्तिलाफ है, इसके बावुजूद की किताब ओ सुन्नत में इसकी साफ तशरी आई है। हमारे मुआशरे में सुन्नत और नवाफिल नमाज दो किस्मत के इबादत के दर्जे में शुमार होते हैं। लेकिन ये किताब ओ सुन्नत की रोशनी में सही नहीं है।

अरबी में, नवाफ़िल, 'नफ़ीला' अल्फ़ाज़ का जामा का सीघा है, जिसका मतलब होता है 'जो चीज़ फ़र्ज़ से ज़्यादा हो' यानि इज़ाफ़ी चीज़।

हमारे दीन में सिर्फ दो तरह की इबादत होती है, एक फर्ज और एक नवाफिल। यानी एक वो इबादत जो हम पर फ़र्ज़ हुई है और दूसरी वो जो फ़र्ज़ के अलावा हो। और इस नवाफिल में सुन्नत का भी शुमार होता है क्योंकि सुन्नत फ़र्ज़ नहीं होती। इस लिए जब नवाफिल कहा जाएगा तो इसमे फ़र्ज़ के अलावा जितनी भी किस्मत है वो सब इसमें शामिल होंगी जैसे सुन्नत  नमाज़, वित्र नमाज़, वग़ैरा। अब आइए इस बात की दलील देखते हैं:

 حَدَّثَنَا بَيَانُ بْنُ عَمْرٍو، حَدَّثَنَا يَحْيَى بْنُ سَعِيدٍ، حَدَّثَنَا ابْنُ جُرَيْجٍ، عَنْ عَطَاءٍ، عَنْ عُبَيْدِ بْنِ عُمَيْرٍ، عَنْ عَائِشَةَ ـ رضى الله عنها ـ قَالَتْ لَمْ يَكُنِ النَّبِيُّ صلى الله عليه وسلم عَلَى شَىْءٍ مِنَ النَّوَافِلِ أَشَدَّ مِنْهُ تَعَاهُدًا عَلَى رَكْعَتَىِ الْفَجْرِ-

आयशा र.अ. से रिवायत है रसूल अल्लाह ﷺ नवाफिल (सुन्नत) में से किसी चीज पर इतनी मुहाफिजत और मुदावेमत नहीं करते जिस कदर फज्र की २ रकात (सुन्नत) पर करते थे।

सहीह अल बुखारी, किताब अल तहज्जुद ﴾१९﴿, हदीस- ११६३.

क्या हदीस में अम्मी आयशा र.अ. ने फज्र की सुन्नत के लिए नवाफिल अल्फ़ाज़ का इस्तमाल किया है।

और फिर इस सुन्नत में अहले इल्म ने दो तकसीमे की है, एक सुन्नत ए मुअक्कदा और दूसरा सुन्नत ए ग़ैर मुअक्कदा, यानी एक वो सुन्नत जिसको अदा करने पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया हो जैसे वित्र और दूसरी वो सुन्नत जिसे अदा करने पर उसका काम ज़ोर दिया गया हो. लेकिन इसके बावज़ूद दोनों किस्मत के सुन्नत को चोरने पर गुनाह नहीं होगा। सुन्नत के लिए मुस्तहब अल्फ़ाज़ का भी इस्तमाल होता है और सुन्नत के बदले इस अल्फ़ाज़ को भी अदा किया जाता है।

अब आइए असल मौजू पर रोशनी डालते हैं कि क्या नमाज़ की सिर्फ फर्ज रकात ही पढना काफी है।

۩ अबू हुरैरा र.अ. रिवायत करते हैं के एक देहाती नबी ﷺ की खिदमत में आया और अर्ज़ किया के आप मुझे कोई ऐसा अमल बताइए जिस पर अगर मैं हमेशा (लगातार) करु तो जन्नत में दाखिल हो जाउ। आप ﷺ ने फ़रमाया अल्लाह की इबादत करो, हमें किसी को शरीक न ठहराओ, फर्ज नमाज कायम करो, फर्ज जकात दो और रमजान के रोजे रखो।

देहाती ने कहा, 'उस जात की कसम जिसके हाथ में मेरी जान है' मैं इससे ज्यादा नहीं करूंगा।

जब वो पीठ मोड़ कर जाने लगा तो नबी ﷺ ने फरमाया के अगर किसी जन्नती को देखना हो तो इस शख़्स को देख लो।

सहीह अल-बुखारी, किताब अल ज़कात ﴾ २४ ﴿, हदीस- १३९७.

क्या हदीस से ये वाज़ेह हक़ीक़त मालूम है कि अल्लाह को काम है, अपने बंदो से जो नमाज़ की रकात चाहिए वो फ़र्ज़ रकात है, क्योंकि उस देहाती शक्स ने कहा कि मैं फ़र्ज़ से ज़्यादा नहीं पढ़ूंगा और इसके बावजुद रसूलअल्लाह ने उन्हें जन्नत की बशारत दी . क्या हदीस में हज का हुक्म नहीं है क्योंकि हमारा वक्त तक हज फर्ज नहीं हुआ था। तो अब सवाल उठता है कि जब सिर्फ फर्ज रकात ही पढ़ना काफी है तो फिर हमें बाकी नवाफिल (सुन्नत) नमाज पढ़ने की क्या जरूरत है। इस सवाल पर एक दूसरी हदीस रोशनी डालती है:

۩ हुरैस बिन कबीसा रिवायत करते हैं की,

माई मदीन आया, माई ने कहा, ऐ अल्लाह मुझे नेक और सालेह साथी नसीब फरमा, चुनान्चे अबू हुरैरा र.अ. के पास बैठना मुयस्सर हो गया, मैंने उन से कहा, 'मैंने अल्लाह से दुआ मांगी थी के मुझे नेक साथी अता फरमा, तो आप मुझसे कोई ऐसी हदीस बयां करिए, जिसे आप ने रसूलल्लाह ﷺ से सुनी हो, शायद अल्लाह मुझे इससे फैदा पोहंचाए .' उनको कहा, मैंने रसूलल्लाह ﷺ को फरमाते सुना है, 'कयामत के रोज बंदे से सब से पहले उसकी नमाज का हिसाब होगा, अगर वो ठीक रही तो कायमाब हो गया, और अगर वो खराब निकली तो वो नाकाम और नामुराद रहा, और अगर उसकी फ़र्ज़ नमाज़ों में कोई कमी आएगी तो रब अजवा (फरिश्तों से) फरमायेगा, देखो, मेरे इस बंदे के पास कोई नवाफिल नमाज़ है? 'चुनांचे फर्ज नमाज की कमी की तलफी उस नवाफिल से कर दी जाएगी, फिर इसी अंदाज से सारे अमाल का हिसाब होगा।'

जामिया तिर्मिज़ी, किताब अस सलात ﴾२﴿, हदीस- ४१३. इमाम तिर्मिज़ी ने इसकी सनद को हसन ग़रीब और दारुस्सलाम ने इस हदीस को सही करार दिया है।

तो इस हदीस से मालूम पड़ा कि जो नवाफिल (सुन्नत) नमाज हम पढ़ते हैं वो दरसल फर्ज के शुद्ध न होने पर काम आएगा। तो एक हिसाब से ये असल क़ज़ा ए उमरी हुई (लफ़्ज़ी माने के तौर पर) ना कि वो जो लोगो ने खुद से बनाई है। क्या हदीस से हमें ये पता चला के हमे नवाफिल (सुन्नत) नमाज भी पढ़नी है, अगर हमारे नमाजो में कमी रह गई तो वो इस नवाफिल (सुन्नत) नमाज से पूरी होनी है।

और इस नवाफ़िल (सुन्नत) नमाज़ की एक और फ़ज़िलत है,

۩ उम्मे हबीबा र.अ. कहती है कि रसूलअल्लाह ﷺ को फरमाते हुए सुना, "जिस ने एक दिन और रात में बारह (१२) रकात अदा की, उसके लिए उनके बदले जन्नत में एक घर बना दिया जाता है।" एपी आर.ए. मज़ीद फरमाती है, 'जब से मैंने अंदर के बारे में रसूलअल्लाह से सुना, मैंने इन्हें कभी तर्क नहीं किया।'

सही मुस्लिम, किताब सलात अल मुसाफिरीन वा क़सर ﴾ ६ ﴿, हदीस- १६९४.

और ये बारह (१२) रकात कौन सी थी ये हमें इस हदीस से पता चलता है:

۩ अब्दुल्ला बिन शाक़िक र.अ. रिवायत करते हैं के मैंने आयशा आर.ए. से रसूल अल्लाह ﷺ के नवाफिलो का हाल दरियाफ्त किया तो आयशा र.अ. ने कहा, 'रसूल अल्लाह ﷺ मेरे घर में ज़ोहर से पहले ४ रकात पढ़ते थे, फिर आप निकलते और लोगों के साथ (ज़ोहर के फ़र्ज़) पढ़ते, फिर (घर में) दाख़िल होते और २ रकात नमाज़ पढ़ते। आप लोगो के साथ मगरिब की नमाज़ पढ़ते, फ़िर (घर में) दाख़िल होते और २ रकअत (सुन्नत) पढ़ते, फिर आप लोगो के साथ ईशा की नमाज़ पढ़ते, फिर (घर में) दाख़िल होते और २ रकात नमाज़ पढ़ते और रात को आप ९ रकअत (तहज्जुद की) नमाज पढ़ते हैं, इसमें वित्र भी होता था और जब सुबह नामुदार होती थी तो (नमाज ए फज्र से पहले) २ रकअत (नवाफिल) पढ़ते थे।'

सही मुस्लिम, किताब सलात अल मुसाफिरीन वा क़सर ﴾ ६ ﴿, हदीस- १६९९.

अल्लाह से दुआ है कि वो हमें अमल की तौफीक अता करे। आमीन.