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किसी भी इबादत की कुबुलियत का दरोमदार उसकी नियत पर होता है इसी वजह से उम्मत ए मुहम्मदिया ﷺ की सबसे ऊंची हदीस की किताब की शुरुआत ही इसी हदीस से होती है कि रसूलल्लाह ﷺ ने फरमाया की अमाल का दरोमदार नियत पर है (सहीह अल बुखारी, हदीस नंबर १).
लेकिन साथ-साथ ये भी जान ले कि नियत का मतलब क्या होता है, अरबी डिक्शनरी के मुताबिक नियत का मतलब दिल का इरादा होता है। अगर आपने किसी इब्दत का इरादा कर लिया हो तो आपकी नियत वहीं पर हो जाती है, जरूरी नहीं आप अपनी नियत को जुबान से बोलें।
इसी तरह नमाज़ की नियत भी तब ही हो जाती है जब आप ये इरादा कर लेते हैं कि मुझे अब नमाज पढ़ना है। हां फिर ऐसा कहा जाए कि नमाज की नियत तो उसी वक्त हो जाती है जब आदमी अज़ान सुनकर मस्जिद की तरफ चल पड़ता है और इसी नियत की वजह से हमें नमाज़ी को हर कदम पर नेकियां मिलती है (सहीह मुस्लिम, हदीस- ६५४)। लहाज़ा नमाज़ शुरू करते वक्त जो कुछ पढ़ा जाता है वो खिलाफ़ ए सुन्नत तो है ही साथ ही साथ खिलाफ़ ए अक़्ल भी है।
और अल्लाह सबसे बेहतर जानता है।
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