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और किसी मोमिन मर्द और किसी मोमिन औरत को यह हक़ नहीं है कि जब अल्लाह तआला और उसका रसूल ﷺ किसी मुआमले का फैसला कर दे तो उनके लिए खुद अपने मुआमले में इख्तियार हो और जो अल्लाह तआला और उसके रसूल ﷺ की नाफरमानी करेगा तो यकीनन वह गुमराह हो गया, वाज़ेह गुमराह होना।
कुरआन, सुरह अल अहज़ाब (33), आयत-36 (तर्जुमा- निघत हाशमी)
۩ इस आयत की तफसीर में ईमाम इब्ने कसीर फरमाते है,
“यह आयत हुक्म के एैतबार से आम है और यह (आयत) हर मुआमले में लागु होती है, वह यह कि जब अल्लाह और उसका रसूल ﷺ कोई फैसला करदे, तो यह किसी का हक़ नहीं कि वह इसके खिलाफ जाये और इसके मुताअल्लिक किसी के पास कोई इख्तियार या ज़ाती राय व क़ियास की जगह नहीं है
अल्लाह फरमाते है,
सो क़सम है तेरे परवरदिगार की! यह मोमिन नहीं हो सकते जब तक कि तमाम आपस के इख्तिलाफ में आपको हाकिम ना मान ले, फिर जो फैसले आप उनमें करदे उनसे अपने दिल में किसी तरह की तंगी और ना-खुशी ना पाये और फरमाबरदारी के साथ कुबूल कर लें।
लिहाज़ा इसके खिलाफ जाने के मुआमले को इस तरह के सख़्त अलफाज़ में खिताब किया गया है
और जो अल्लाह तआला और उसके रसूल ﷺ की नाफरमानी करेगा तो यक़ीनन वह गुमराह हो गया (33ः36)।
यह इस आयत की तरह है
जो लोग हुक्म ए रसूल ﷺ की मुखालिफत करते है, उन्हें डरते रहना चाहिए, कि कहीं उनपर कोई ज़बरदस्त आफत ना आ पड़े या उन्हें दर्दनाक अज़ाब ना पहुंचे।
सुरह नूर (24), आयत‘63” end quote.
तफसीर इब्ने कसीर, सुरह-33, आयत 36.
۩ इस आयत की तफसीर में ईमाम तबरी (अलमुतवफ्फा 310 हिजरी) फरमाते है,
“(जिस चिज़ में अल्लाह या उसका रसूल ﷺ फैसला कर देे) उसमें अपना इख्तियार रखना अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की ना-फरमानी है और ऐसा बन्दा खुली गुमराही में है।”
तफसीर अल-तबरी, सुरह-33, आयत 36.
तो जब अल्लाह या उसके रसूल ﷺ से कोई बात साबित हो जाये तो फिर यह नहीं देखना चाहिए कि हमारे बुज़ुर्ग, असलाफ, ईमाम की क्या राय है इस पर। यह हुक्म के एैतबार से है। हां अगर कोई इल्म हासिल करने के लिए या कोई दुसरे जायज़ मक़सद से किसी की राय देखता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है क्योंकि कुरआन खुद कहता है कि जब इल्म ना हो तो अहले इल्म से पूछो (21-7)।
۩ इसी ताअल्लुक़ से ईमाम शाफई (तबे-ताबईन) कहते है:
“उलमा का इस पर इजमाअ है कि जब नबी ﷺ की सुन्नत किसी पर वाज़ेह हो गई है तो फिर यह उस पर हलाल नहीं कि किसी और के कहने से इसे छोड़ दे।”
इब्ने अल-कय्यम एैलाम अल मोक़ियीन (2/361), फुलानी (सफा 68)।
۩ शैख सुलैमान इब्ने अब्दुल्लाह कहते है:
"बल्कि मोमिन पर हत्मन फर्ज़ है कि जब उसे किताबुल्लाह और सुन्नत ए रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पहुंचे और इसके माने (meaning) का इल्म हो जाए चाहे वह किसी भी चीज़ में हो तो उस पर अमल करे, चाहे वह किसी के भी मुखालिफ हो, हमारे परवरदिगार तबारक व तआला और हमारे नबी ﷺ ने हमें यही हुक्म दिया है, और सब इलाक़ों के उलमा इसपर मुत्तफिक़ है, सिवाय बे-इल्म किस्म के मुकल्लिदीन और सख़्त दिल लोगों के, और इस तरह के लोग उलमा में शामिल नहीं होते।"
तैसीर अल अज़ीज़ अल हमीद, पेज नं. 546.
۩ सालिम बिन अब्दुल्लाह ने बयान किया कि उन्होंने अहले शाम में से एक शख्स से सुना, वह अब्दुल्लाह बिन उमर रज़िअल्लाहु तआला अन्हुमा से हज्ज में उमराह से फयदा (हज्ज ए तमत्तो) के बारे मेें पूछ रहा था। तो अब्दुल्लाह बिन उमर रज़िअल्लाहु तआला अन्हुमा ने कहा, “यह जायज़ है”। इसपर शामी (शाम का रहने वाला) ने कहा, “(लेकिन) आपके वालिद (उमर रज़िअल्लाहु तआला अन्हु) ने तो इससे रोका है?
अब्दुल्लाह इब्ने उमर रज़िअल्लाहु तआला अन्हुमा ने कहा, “ज़रा तुम यह बताव, अगर मेरे वालिद किसी चीज़ से रोके और रसूल अल्लाह ﷺ ने उसे किया हो तो मेरे वालिद के हुक्म की पैरवी की जायेगी या रसूल अल्लाह ﷺ की, तो उसने कहा, “रसूल अल्लाह ﷺ की”, तो उन्होंने कहा, “रसूल अल्लाह ﷺ ने ऐसा किया है”।
जामिआ तिर्मिज़ी, किताब अल हज्ज, हदीस-824, ज़ुबैर अली ज़ई ने इसे सहीह कहा है।
۩ सईद बिन अल-मुसैयब रज़िअल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत करते है, उमर बिन खत्ताब रज़िअल्लाहु तआला अन्हु मस्जिद में तशरीफ लाये तो हस्सान रज़िअल्लाहु तआला अन्हु शायरी पढ़ रहे थे। (उमर रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने शायरी पढ़ने को ना-पसन्द किया) इस पर हस्सान ने कहा, “मैं इसी मस्जिद में शायरी पढ़ा करता था उन (रसूल अल्लाह ﷺ ) की मौजुदगी में जो आप से बेहतर थे। फिर हस्सान रज़िअल्लाहु तआला अन्हु अबु हुरैरा रज़िअल्लाहु तआला अन्हु की तरफ मुड़े और कहा कि मैं तुम्हे अल्लाह का वास्ता देकर पूछता हूं कि क्या रसूल अल्लाह ﷺ को तुमने यह फरमाते नहीं सुना कि “ऐ हस्सान! (कुफ्फार ए मक्का को) मेरी तरफ से (शायरी में) जवाब दो, ऐ अल्लाह रूह अल कुद्स के ज़रिए हस्सान की मदद कर। अबु हुरैरा रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने कहा, “जी हां (मैंने यह सुना था)”।
जामिआ तिर्मिज़ी, किताब अल हज्ज, हदीस-824, ज़ुबैर अली ज़ई ने इसे सहीह कहा है।
۩ सईद बिन अल-मुसैयब रज़िअल्लाहु तआला अन्हु से रिवायत करते है, उमर बिन खत्ताब रज़िअल्लाहु तआला अन्हु मस्जिद में तशरीफ लाये तो हस्सान रज़िअल्लाहु तआला अन्हु शायरी पढ़ रहे थे। (उमर रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने शायरी पढ़ने को ना-पसन्द किया) इस पर हस्सान ने कहा, “मैं इसी मस्जिद में शायरी पढ़ा करता था उन (रसूल अल्लाह ﷺ ) की मौजुदगी में जो आप से बेहतर थे। फिर हस्सान रज़िअल्लाहु तआला अन्हु अबु हुरैरा रज़िअल्लाहु तआला अन्हु की तरफ मुड़े और कहा कि मैं तुम्हे अल्लाह का वास्ता देकर पूछता हूं कि क्या रसूल अल्लाह ﷺ को तुमने यह फरमाते नहीं सुना कि “ऐ हस्सान! (कुफ्फार ए मक्का को) मेरी तरफ से (शायरी में) जवाब दो, ऐ अल्लाह रूह अल कुद्स के ज़रिए हस्सान की मदद कर। अबु हुरैरा रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने कहा, “जी हां (मैंने यह सुना था)”।
सहीह अल बुखारी, हदीस नं. 3212।
۩ इकरमाह रज़िअल्लाहु तआला अन्हु कहते है कि अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने कुछ ऐसे लोगों को ज़िन्दा जला दिया था जो इस्लाम से मुर्तद हो गये थे। जब इब्ने अब्बास को यह बात मालुम हुई तो उन्होंने कहा: “अगर (अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु की जगह) मैं होता तो इन्हें क़त्ल करता, क्योकि रसूल अल्लाह ﷺ का फरमान है “जो अपने दीन को बदल डाले उसे क़त्ल कर डालो। ” और मैं इन्हें जलाता नहीं क्योंकि रसूल अल्लाह ﷺ का फरमान है “अल्लाह के अज़ाब जैसा अज़ाब ना दो।”
फिर इस बात की खबर अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु को हुई तो उन्होंने कहा, “इब्ने अब्बास ने सच कहा।”
जामिआ तिर्मिज़ी, किताब अल हुदुुद, हदीस नं. 1458, इसे ईमाम तिर्मिज़ी और शैख ज़ुबैर अली ज़ई ने सहीह कहा है।
۩ मुजाहिद रिवायत करते है कि इब्ने अब्बास रज़िअल्लाहु तआला अन्हु से मरवी है कि एक मर्तबा वह अमीर मुआवीया रज़िअल्लाहु तआला अन्हु के साथ बैतुल्लाह का तवाफ कर रहे थे, अमीर मुआवीया रज़िअल्लाहु तआला अन्हु खाना ए काबा के तमाम कोनों को छुंने लगे, इब्ने अब्बास रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने कहा कि आप उन दो (2) कोनों को क्यों छु रहे है जबकि नबी ﷺ ने उन (कोनों) को नहीं छुआ? उन्होंने फरमाया कि बैतुल्लाह के किसी हिस्से को छोड़ा नहीं जा सकता। इसपर इब्ने अब्बास रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने यह आयत पढ़ी कि तुम्हारे लिए पैग़म्बर ए इस्लाम ﷺ की ज़ात में बेहतरीन मिसाल मौजुद है। (कुरआन, 33ः21)। मुआवीया रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने फरमाया कि आप ने सच कहा।
मुसनद ईमाम अहमद, जिल्द 2, हदीस नं. 1877.
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अल्लाह से दुआ है कि वह हमें सिरात ए मुस्तक़ीम अता करे। आमीन।
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